।पशिचम बंगाल : वाम मोर्चे की शर्मनाक हार से निकलते सबक

Hindi translation of West Bengal: Lessons of the Defeat of the Left Front (May 25, 2011)

''............13 मर्इ को हुए परिणामों की घोषणा के अनुसार, पशिचम बंगाल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) ¿सीपीआर्इ (एम)À  के नेतृत्व में चल रहे वाम मोर्चे की करारी हार, दक्षिण एशियार्इ प्रायद्वीप की वाम राजनीति में आया एक महत्वपूर्ण मोड़..........

पशिचम बंगाल में, तृणमूल कांग्रेस की नेेता ममता बनर्जी के नेतृत्व मेें मौजूदा बुजर्ुआ गठबंधन सरकार ने पिछले दिनाें हुए चुनावों में 294 सीटों में से 228 सीटों पर स्पष्ट विजय प्राप्त की। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) को महज 64 सीटों पर कब्जा मिला और उसकी शर्मनाक हार ने पिछले 34 सालों से पशिचम बंगाल में चल रहे उसके एकछत्र राज्य का किला ढह गया। पार्टी को केरल में भी भारी शिकस्त मिली है और इन चुनावी परिणामों से, शासक वर्ग और साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा माक्र्सवाद और साम्यवादी विचारधारा के वैचारिक अंत के बारे में किये जा रहे सतत प्रचार को वर्तमान परिपेक्ष्य में और बल मिला है। इसके अतिरिक्त, इन परिणामों से निश्चय ही समाजवादी क्रानित का रास्ता छोड़कर बुजर्ुआ खेेमें में दाखिल हो चुके उन पूर्व वामपंथियों की आत्मग्लानि और दंभपूर्ण रवैये को राहत मिली होगी, जो की अब बुजर्ुआ वर्ग का दामन थामकर 'समाजवाद के अंत का घिसा-पिटा राग अलाप रहे हैं। यधपि, इस हार की वजह से वर्तमान वामपंथियों की 'क्रानित के दो चरणाें की वैचारिक अवधारणा  और रणनीतिक सिद्धाताें पर पड़ा परदा सरका है, पर निशिचत तौर पर वामपंथी और साम्यवादी विचारधारा का अभी भी भारतीय युवा वर्ग और सर्वहारा के संघर्षो में निर्णायक महत्व होगा, जो की आगामी तूफानी घटनाक्रम में जाहिरा तौर पर शामिल होंगे।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन दिसंबर 1920 में, तत्कालीन सोवियत संघ के शहरों बर्लिन तथा ताशकंद में, लेनिन तथा टार्टस्की के नेतृत्व में काम कर रही बोल्शेविक पार्टी के दिशा-निर्देशों के अनुरूप चंद भारतीय कम्युनिस्टों द्वारा किया गया था जिन्हें देश निकाला मिला था। रूस की अक्टूबर क्रानित का बि्रटिश राजसत्ता के विरुद्ध भारत में चल रहे राष्ट्रीय मुकित संघर्ष पर पड़ने वाले उत्साहवद्र्धक प्रभावाेंं के कारण, उस वक्त भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एक निहायत ही थोड़े समयान्तराल में सापेक्षतया काफी अधिक जनाधार प्राप्त कर लिया था। इस राष्ट्रीय मुकित आंदोलन में सीपीआर्इ की भूमिका को भारतीय व पाकिस्तानी इतिहासकारों द्वारा बहुत कम करके आंका गया है। लेकिन, उनका यह आधार भी द्वितीय विश्व युद्ध के अनितम दौर में, उसके नेतृत्व द्वारा किए गये समझौते के कारण तब दरकने लगा, जब उन्होंने चर्चिल, रूजवेल्ट तथा स्टालिन के बीच के याल्टा तथा पोस्टडम की नीतियों के अनुरूप साम्राज्यवादियों के साथ समझौता कर लिया। भारत-पाक विभाजन के बाद भी उन्होंने मेन्शेविक नीति के अनुसार क्रानित के दो चरणाें के उस सिद्धान्त की हिमायत जारी रखी, जिसका मूल भाव यह था कि भारतीय क्रानित का चरित्र सर्वहारा समाजवादी क्रानित की बजाए बुजर्ुआ जनतांत्रिक तौर तरीके से होगा। उन्होंने भारतीय बुजर्ुआ वर्ग का समर्थन किया जिसका नेतृत्व व प्रतिनिधित्व नेहरू के हाथों में था। इस पक्षधरता ने सीपीआर्इ में अवश्यंभावी मतभेदों को जन्म दिया, जिसका परिणाम पार्टी के विभाजन व सीपीआर्इ (माक्र्सवादी) के गठन के रुप में सामने आया। इसके बाद, 1967 में एक और विभाजन हुआ जिसके फलस्वरुप एक और पार्टी सीपीआर्इ (माक्र्सवादी-लेनिनवादी) का गठन हुआ। हालांकि, सीपीआर्इ तथा सीपीआर्इ (एम) के बीच के वैचारिक मतभेदों की दूरी काफी कम थी, और इन दोनों ही पार्टियों की घोषित केन्द्रीय नीति क्रानित के दो चरणों के सिद्धान्त की ही थी। कुछ हद तक यह बात तत्कालीन सोवियत विभाजन को ही परिलक्षित करती थी, जिसमें मतभेद महज यह था कि भारतीय बुजर्ुआ का कौन सा हिस्सा प्रगतिशील है और कौन सा दलाल। भारत में प्रचालित आज की समाजिक परिसिथतियों के अनुसार यह सिथति स्वाभाविक तौर पर स्पष्ट है कि भारतीय शासक वर्ग के किसी भी हिस्से की कहीं से कहीं तक किसी भी तरह की प्रगतिशील भूमिका नहीं है, और न कभी रही है।

तथापि, सीपीआर्इ (एम) को सापेक्षत: अपने उग्र सुधारवादी नाराें तथा सीपीआर्इ द्वारा बुजर्ुआ कांग्रेस सत्ता की तरफदारी करने के कारण पशिचम बंगाल, त्रिपुरा, केरल तथा कुछ अन्य राज्यों में व्यापक जनाधार मिलने लगा। एक एकीकृत पार्टी के तौर पर सीपीआर्इ ने 1957 में केरल में चुनाव जीता और तबसे लेकर अब तक इस राज्य में उसकी सरकार आती-जाती रही है। परन्तु पशिचम बंगाल, जिसकी जनसंख्या 91 करोड़ है, कहीं अधिक महत्व का रहा। 1978 में जब वाममोर्चे की सीपीआर्इ (एम) ने पशिचम बंगाल में अपनी सरकार बनायी, जिसके मुख्यमंत्री ज्योति बसु थे, उस समय उन्होंने उन्नत तरीके से भूमि सुधार किये तथा आम जनता में चेतना जागृत की, खासतौर पर उन ग्रामीण इलाकों में जहां उनका जनाधार ठोस था। परन्तु उनकी यह नीतियां, अपने आप में महज वामपंथी सुधारवाद की ही थीं। उस दौर में, राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी द्वारा भी नेहरूवादी माडल के समाजवाद की नीतियाें को बढ़ावा दिया जा रहा था और सीपीआर्इ (एम) की नीतियों का चरित्र उससे थोड़ा ही अधिक प्रगतिशील था। परन्तु जैसे ही पूंजीवाद की कीनियार्इ विचारधारा पर आधारित ढांचा वैशिवक पैमाने पर दरकने लगा जिसके पीछे का आधार था बर्लिन की दीवार का टूटना, सोवियत संघ का पतन तथा चीन की नौकरशाही का अधो:पतन, वैसे-वैसे साम्राज्यवाद का चरित्र अत्यधिक आक्रामक होने लगा तथा थैचर व रीगन की निगहबानी ने पूंजीवाद के आर्थिक स्वरूप को स्थापित किया। इस सिद्धान्त ने अर्थव्यवस्था में राजसत्ता के हस्तक्षेप को बड़े पैमाने पर सीमित कर दिया और जिसकी वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समाजिक लोकतंत्र की सुधारवादी विचारधारा को एक घातक झटका मिला। 

इन घटनाओं के कारण भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं पर अत्यधिक दबाव पड़ने लगा। उनका चरित्र पूरी तरह से तब उदघाटित होने लगा जैसे-जैसे उन्होंने अपनी सरकार वाले राज्योंं में इन नीतियों को लागू करना शुरू किया। विदेशी तथा देशी पूंजी निवेश को आमंत्रित करने के लिये उन्हाेंने मजदूरों व किसानों के हकाें पर कुठाराघात किया। मुनाफे पर आधारित नीतियों का अर्थ था हड़ताल के अधिकारों का दमन तथा गरीब किसानों को बांटी गयी जमीनाें पर जबरन कब्जा करना। सिंगूर तथा नंदीग्राम की खूनी संघर्षपूर्ण घटनाऐं सत्ता पर काबिज इस वाम नेतृत्व के निर्दयी चरित्र का दु:साहसिक उदाहरण हंै। पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने की क्रानितकारी नीति के बजाए, वे इसके अभिरक्षकों में परिणित हो गये। पशिचम बंगाल के सीपीआर्इ (एम) के अनितम मुख्यमंत्री, बुद्धदेव भटटाचार्य, ने निवेशकों की एक सभा को सम्बोधित करते हुये कहा था कि, '' मैं हड़तालों के खिलाफ हूं, दुर्भाग्य से मैं एक ऐसी पार्टी से संबद्ध हूं जो कि हड़तालों का आह्वान करती है। मैं लम्बे समय से चुप था लेकिन अब चुप नही रहूंगा। वर्तमान चुनावों में बुद्धदेव भटटाचार्य ने सीपीआर्इ (एम) की अपनी सर्वाधिक सुरक्षित सीट भी खो दी, वह भी वोटों के एक भारी अंतराल से। 

इस हार का मूल सबक यह है कि इन 64 सालाें में भारत एक तीक्ष्ण गति से प्रगति कर रही अर्थव्यवस्थाआें में से एक है, फिर भी वैशिवक गरीबी का घनत्व यहां पर सर्वाधिक है। भारतीय पूंजीवाद ने अवाम के लिये उत्पीड़नकारी दु:खद परिसिथतियां व निस्सहायता की सिथति पैदा कर दी है। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व ने क्रानितकारी धारा को त्यागकर उस रास्ते को अपना लिया जिसे कि लेनिन द्वारा 'संसदीय जड़सूत्रवाद के रूप में परिभाषित किया था। उन्होंने व्यवस्था से समझौता कर लिया और आवाम ने उन्हें बहिष्कृत कर दिया है। भारतीय राष्ट्रवाद, बुजर्ुआ लोेकतंत्र तथा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के सामने आत्मसमर्पण नें उन्हें भारतीय सर्वहारा तथा युवा वर्ग की नर्इ उर्जावान पीढ़ी से अलगाव की सिथति में ला खड़ा कर दिया है। 

यह संकट गहराता जा रहा है। पूंजीवाद में लोकतांत्रिक क्रानित की किसी भी समस्या को हल नहीं किया जा सकता है। यहां तक कि, ये मांगे एक योजनाबद्ध समाजवादी अर्थव्यवस्था में ही पूरी की जा सकती हैं। कम्युनिस्ट पार्टी अभी भी भारतीय कामगार वर्ग की परम्परागत पार्टी है। उत्पीडि़त जनता की मांगों को पूरा करने तथा उनके लिये उन्नति व राहत लाने हेतु इन पार्टियों को परिवर्तित होना ही पड़ेगा। इन पार्टियों में एक व्यापक फूट पड़ गयी है जो कि चुनावाें में इस हार के बाद और सघन हो गयी है। वास्तविक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता अब सवाल खड़े करने लगे हैं और इस गतिरोध से बाहर निकलने का रास्ता तलाश रहे हैं।

ये कम्युनिस्ट पार्टियां सही मायने में केवल तभी कम्युनिस्ट बन पायेंगी जब इनका प्रथम व प्रमुख लक्ष्य, कार्यभार, नीति तथा कार्यक्रम समाजवादी क्रानित का होगा जो कि दक्षिण एशियार्इ प्रायद्वीप में एक समाजवादी संघ के निर्माण की ओर अग्रसरित होगा।